चमारों की गली (अदम गोंडवी) chamron ki gali: Adam gondvi

"चमारों की गली" यह कविता लेखक अदम दोंडवी द्वारा लिखी गई है, इस कविता में भारतीय समाज में व्याप्त दलित समाज के प्रति क्रूरता का वर्णन बड़े ही मार्मिक तरीके से किया गया है। इसमें बताया गया है उच्च वर्ग द्वारा दलित समुदाय का शोषण किया जाता है, जिसमें प्रशासन भी अपने कर्तव्यों का पालन न करके उच्च समुदाय का साथ देता है। 

चमारों की गली (अदम गोंडवी) chamron ki gali: Adam gondvi

आइए महसूस करिए जिंदगी के ताप को
में चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको
जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
मर गई फुलिया बिचारी एक कूएँ में डूब कर
है सधी सिर पर बिनौली कंडियो की टोकरी 
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी 
चल रही है छन्द के आयाम को देती दिशा 
में इसे कहता हूं सरजू पार की मोनालिसा 
कैसी यह भयभीत है हिरनी सी घबराई हुई 
लग रही जैसे कली बेला की कुल्हलाई हुई 
कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है
जानते हो इसकी खामोशी का कारण कौन है
थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को
सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को
डूबती सूरज की किरने खेलती थीं रेत से
घास गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से 
आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में 
क्या पता उसको की कोई भेड़िया है घात में 
होनी से बेखबर कृष्ना बेखबर राहों में थी
मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थी
चीख निकली भी तो होठों के ही घुट कर रह गई
छटपटाई पहले, फिर ढीली पड़ी फिर ढह गई
दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया
वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया
और उस दिन ये हवेली हँस रही थी मौज में 
होश में आई तो कृष्ना थी पिता की गोद में 
जुड़ गई थी भीड़ जिसमें ज़ोर था सैलाब था
जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था
बढ़ के मंगल ने कहा, काका तू कैसे मौन है
पूछ तो बेटी से आख़िर वो दरिंदा कौन है
कोई हो संघर्ष से हम पाँव मोड़ेंगे नहीं 
कच्चा खा जाएंगे जिंदा उसको छोडेंगे नहीं 
कैसे हो सकता हैं होनी कह के हम टाला करें 
और ये दुश्मन बहु बेटी से मुंह काला करें 
बोला कृष्ना से बहन सो जा मेरे अनुरोध से 
बच नहीं सकता हैं वो पापी मेरे प्रतिशोध से 
पड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में 
वे इकट्ठे हो गए सरपंच के दालान में 
दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लम्बी नोक पर
देखिए सुखराज सिंह बोले हैं खैनी ठोंक कर
क्या कहे सरपंच भाई! क्या ज़माना आ गया
कल तलक जो पाँव के नीचे था रूतबा पा गया
कहती है सरकार की आपस में मिलजुल कर रहो 
सुअर के बच्चों को अब कोरी नही हरिजन कहो 
देखिए ना यह जो कृष्ना है चमारों के यहां 
पड़ गया है सीप का मोती गँवारों के यहां 
जैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर है
न पुट्ठे पे हाथ रहने देती है, मगरुर है
भेजती भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ
फिर कोई बाँहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ 
आज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गई 
जाने अनजाने वो लज्जत ज़िंदगी की पा गई
वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गई 
वरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही
जानते हैं आप मंगल एक ही मक्कार है
हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार 
कल सुबह गरदन अगर नापती है बेटे बाप की 
गाँव की गलियों में क्या इज्ज़त रहेगी आपकी
बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया 
हाथ मूँछों पर गए माहौल भी सन्ना गया
क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था
हाँ, मगर होनी को तो कुछ और मंज़ूर था
रात जो आया न अब तूफ़ान वह पुरजोर था
 भोर होते ही वहाँ का दृश्य बिलकुल और था
सिर पे टोपी बेंत में लाठी संभालें हाथ में 
एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में 
घेर कर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने 
जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने 
निकला मंगल झोंपड़ी का पल्ला थोड़ा खोल कर
इक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़ कर
गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया
सुन पड़ा फिर माल वो चोरी का तूने क्या किया ?
कैसी चोरी माल कैसा? उसने जैसे ही कहा 
एक लाठी फिर पड़ी बस, होश फिर जाता रहा
होश खो कर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर
ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर
"मेरा मुँह क्या देखते ही! इसके मुँह में थूक दो
आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूँक दो"
और फिर प्रतिशोध की आँधी वहाँ चलने लगी
बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी
दुधमुंहा बच्चा व बुड्ढा जो वहाँ खेड़े में था
वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में था
घर के जलते देख कर वे होश को खोने लगे
कुछ तो मन ही मन मगर कुछ ज़ोर से रोने लगे
कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएँ नहीं
हुक्म जब तक मैं न दूँ कोई कहीं जाए नहीं
यह दरोगा जी थे मुँह से शब्द झरते फूल से
आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल से
फिर दहाड़े इनको डंडों से सुधारा जाएगा
ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा 
इक सिपाही ने कहा साइकिल किधर को मोड़ दें 
होश में आया नहीं मंगल को कहो तो छोड़ दें 
बोला थानेदार, मुर्गे की तरह मत बाँग दो
होश में आया नहीं तो लाठियों पर टाँग लो
ये समझते हैं कि ठाकुर से उलझना खेल है
ऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है जेल है 
पूछते रहते है मुझसे लोग अकसर यह सवाल
"कसा है कहिए न सरजू पार की कृष्ना का हाल"
उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को
सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को
धर्म, संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को
प्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को
मैं निमंत्रण दे रहा हूँ आएं मेरे गाँव में 
तट पे नदियों के घनी अमराइयों की छाँव में 
गाँव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही
या अहिंसा की जहाँ पर नथ उतारी जा रही
है तरसते कितने ही मंगल लँगोटी की लिए
बेचती है जिस्म कितनी ही कृष्ना रोटी के लिए! 

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