इस ब्लॉग आर्टिकल में हिंदी साहित्य इतिहास का भक्तिकाल के बारे में अध्ययन करेंगे, जिसे हिंदी साहित्य इतिहास के स्वर्ण युग के नाम से भी जाना जाता है। इस काल में भगवान की आराधना अपने उच्चतम स्तर पर पहुंची। इस काल की समयावधि 1375 ई. से 1700 ई. तक मानी जाती है। इस ऑर्टिकल में इस काल की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक परिस्थितियाँ और भक्तिकाल की विभिन्न शाखाएं आदि के बारे में जानेंगे।
भक्तिकाल
भक्तिकाल हिंदी साहित्य इतिहास का सबसे महत्वपूर्ण कालखंड है। इसे हिंदी साहित्य का स्वर्ण युग भी कहा जाता है। इस काल में राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक गतिरोधों के होते हुए भी इस काल में भक्ति की धारा प्रवाहित हुई। इस काल का प्रारंभ सन् 1350 से माना जाता है। इस काल को संत कबीर, जायसी, तुलसीदास, सूरदास और समकालीन कवियों ने अपने उच्च शिखर तक पहुंचाया। उपासना की दृष्टि से इस काल को दो भाग में विभाजित किया जाता है, सगुण भक्ति और निर्गुण भक्ति।
भक्तिकाल की परिस्थितियाँ
राजनैतिक परिस्थितियाँ
इस काल तक उत्तरी भारत में मुस्लिम साम्राज्य की स्थापना हो गई थी। किंतु अभी मुगलों और अफगानों में संघर्ष जारी था। मुस्लिमों ने अपना साम्राज्य दृढ़ करने हेतु हिंदुओं से संबंध बनाना शुरू किया। इस कालखंड में दिल्ली पर तुगलक वंश, लोधी वंश, बाबर, हुमायूं, अकबर और ज़हांगीर का शासन रहा है। इस काल में हिंदू मुस्लिम द्वेष बढ़ रहा था। जात पात, छुआ छूत आदि समाज व्याप्त हो चुकी थी। भक्तिकाल का साहित्य राजनीतिक वातावरण के प्रतिकूल रहा। कबीर, जायसी, तुलसी और सूरदास आदि कवि भक्ति काल की धारा में बढ़ते जा रहे थे।
सामाजिक परिस्थितियाँ
15वीं शताब्दी तक हिंदू और मुस्लिमों के बीच सामंजस्य की भावना धीरे धीरे विस्तार कर चुकी थी। उनके जीवन के कई क्षेत्रों में आदान प्रदान प्रारंभ हो रहा था। इसी काल में संत कबीरदास जाति पाती, छुआ छूत व अंधविश्वास का कठोर विरोध कर रहे थे।
धार्मिक परिस्थितियाँ
इस काल में धार्मिक स्थिति विचलित करने वाली थी। समाज में बहु धर्मों का प्रचलन था। इन सभी धर्मों के आपसी समन्वय की भावना नहीं थी। इस के वैष्णव धर्म प्रमुख था, जो अपने को मजबूत कर रहा था। सूफी धर्म भी अपनी जड़े मजबूत कर रहा था। सभी धर्म किसी न किसी रूप में अपने को श्रेष्ठ बनाने का प्रयत्न कर रहा था।
भक्तिकाल का वर्गीकरण
निर्गुण काव्यधारा:
निर्गुण भक्ति एक प्रगतिशील आंदोलन था, इस आंदोलन में सामाजिक, सांस्कृतिक असमानता और रूढ़ियों की आलोचना की गई थी। इस काव्यधारा में ईश्वर को निराकार व सर्वव्यापी मान जाता है, व ईश्वर को किसी रूप या नाम से नहीं जाना जा सकता है। इस भक्ति काव्यधारा में ईश्वर का वास कण कण, घट घट में है। इस काव्यधारा की अन्य एक विशेषता यह है कि ये कर्म कांडों का विरोध करती है। इस भक्तिधारा में जाति पाती, छुआ छूत का कोई स्थान नहीं है। निर्गुण भक्ति के लिए गुरु का विशेष महत्व है। इस धारा में प्रेम एक महत्वपूर्ण घटक है बिना प्रेम भक्ति संभव नहीं है।
इस भक्तिधारा के कवि कबीरदास, नामदेव, धन्ना, पीपा, सेन और रैदास आदि है। काव्यधारा का सबसे प्रमुख ग्रन्थ गुरु ग्रन्थ साहिब है, इस ग्रन्थ में 6 सिख गुरुओं और 18 हिन्दू संतों की वाणी का संग्रह है। निर्गुण भक्ति काव्यधारा की दो शाखाएं है; ज्ञानमार्गी और प्रेममार्गी।
ज्ञानमार्गी शाखा के प्रतिनिधि के रूप में संत कबीरदास को देखा जाता है। ज्ञानमार्गी शाखा अद्वैत वेदांत के सिद्धांतों पर आधारित है, इस शाखा का मुख्य उद्देश्य आत्मज्ञान और मोक्ष प्राप्ति है। प्रेममार्गी शाखा का प्रतिनिधि कवि मालिक मुहम्मद जायसी द्वारा माना जा सकता है।
सगुण काव्यधारा:
सगुण भक्ति काव्यधारा में ईश्वर को साकार रूप में देखा जाता है। इस भक्ति काव्यधारा में भगवान के रूप, गुण और लीलाओं को मानकर पूजा जाता है। इस धारा के दर्शन के कई रूप पाए जाते है। यह काव्यधारा वर्णाश्रम व्यवस्था का समर्थन करती है। और यह कर्मकांडो को भी स्थान प्रदान करती है। इसमें भक्ति के माध्यम से मानव मात्र को स्वीकार किया जाता है। सगुण भक्ति काव्य के प्रतिनिधि कवि हैं, तुलसीदास और सूरदास। सगुण भक्ति काव्यधारा की दो शाखाएं हैं; कृष्ण भक्ति शाखा और राम भक्ति शाखा।
राम भक्ति इस शाखा के कवियों में गोस्वामी तुलसीदास, लाल दास, और अग्रदास जैसे कवि शामिल हैं. रामभक्ति काव्य में भगवान राम के प्रति अटूट आस्था और निष्ठा का भाव दिखता है. कवियों ने राम के चरित्र और गुणों की महिमा गाई है। कृष्ण भक्ति इस शाखा के कवियों में सूरदास, मीराबाई, और रसखान जैसे कवि शामिल हैं।
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