इस ब्लॉग आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के एक महान रचनाकार कबीरदास जी के बारे में अध्ययन करेंगे।
संत कबीरदास 15 वीं सदी में हिंदी साहित्य भक्तिकाल के प्रसिद्ध कवि, विचारक और समाज सुधारक माने जाते है। कबीरदास जी बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे, आलोचकों का एक वर्ग उन्हें संत मानता था जबकि एक अन्य वर्ग उन्हें कवि के रूप में स्वीकार करता था, और कबीरदास निर्विवादित रूप से समाज सुधारक थे। एक महान समाज सुधारक की पहचान होती है कि वह अपने युग की विसंगतियों और कुरीतियों की पहचान करे, व किसी प्रकार के भय या लालच से प्रभावित न होकर समाज को इन विसंगतियों से दूर करे।
कबीरदास सामंतवादी युग के लेखक थे, उस समय विलासिता का जीवन व महिलाओं को भोग की वस्तु समझाता था। वर्णव्यवस्था और साम्प्रदायिकता अपने उच्चतम स्तर पर थी, धर्म और पाखंड का बोलबाला चारों ओर था। ऐसे समाज में कबीर ने मानव मात्र एक होने का सवाल उठाया और स्पष्ट रूप से घोषणा की कि "साईं के सब जीव हैं, कीरी कुंजर होय" कबीर ने अपनी रचनाओं के माध्यम से इन परम्पराओं का खंडन किया।
कबीरदास समाज सुधारक ही नहीं बल्कि एक महान कवि भी थे। हालांकि उन्होंने कभी प्रतिज्ञापूर्वक अपनी कविताएं नहीं लिखी, बल्कि उन्होंने कहा है कि " जिन तुम जान्यों गीति है, वह निज ब्रह्म विचार।" उनकी कविता के अनुसार उन्हें महान कवि कहा जा सकता है। कबीर ने अपनी कविताओं के माध्यम से इस दुनिया में जो कुछ भी देखा, सुना या महसूस किया उसे वर्णन किया है। उनकी कविताओं में सामाजिक स्थितियों पर गहरा व्यंग किया है, इसी कारण उन्हें हिंदी साहित्य का सर्वोच्च व्यंग्यात्मक कवि का स्थान प्राप्त है।
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