साहित्य समाज का दर्पण होता है। किसी भी देश का इतिहास और लोगों के रहन सहन, सभ्यता की जानकारी उसके साहित्य से प्राप्त की जा सकती है। साहित्य सभ्यता का अविभाज्य अंग है। किसी भी काल की साहित्यिक रचना से उस काल खंड की परिस्थितियों, जनता के रहन सहन, खान पान और अन्य गतिविधियों की जानकारी प्राप्त की जा सकती है। साहित्य और समाज एक दूसरे पर प्रभाव डालते है। साहित्य और समाज का वहीं संबंध है जो आत्म का शरीर से है। साहित्य समाज की आत्मा है।
साहित्य लेखन का उद्देश्य केवल मनोरंजन करना मात्र नहीं है, बल्कि इसका उद्देश्य समाज को मार्गदर्शन देना है। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने कहा है कि केवल मनोरंजन ही कवि का कर्म नहीं होना चाहिए, उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए।
भारतीय संस्कृत साहित्य का प्रारम्भ ऋग्वेद से माना जाता है। महर्षि व्यास, महर्षि वाल्मीकि जैसे ऋषियों ने महाभारत और रामायण जैसे महाकाव्यों की रचना की है। व्यास, कालिदास व अन्य कवियों ने संस्कृत में नाटक लिखे है, जो साहित्य की अमूल्य धरोहर है। साहित्यकार अपने देश के इतिहास से प्राप्त अनुभव से वर्तमान का मूल्यांकन करता और भविष्य के लिए मार्गदर्शन प्रदान करता है।
मानवीय सभ्यता एवं राष्ट्रीय के विकास में साहित्य का एक प्रमुख योगदान रहा है। मनुष्यों के विचारों ने साहित्य का निर्माण किया और साहित्य ने विचारधारा को गतिशीलता प्रदान की है। इतिहास साबित करता है कि समाज में जितने भी परिवर्तन आए है, वे सभी कही न कही साहित्य के कारण ही आए है। साहित्यकार ही अपने साहित्य में समाज में फैली कुरीतियों, विसंगतियों, अभावों, विषमताओं और असमानताओं को प्रकट करता है और साहित्य के माध्यम से जनता को जागरूक करने का महत्वपूर्ण कार्य करता है। जब जब समाज में नैतिक मूल्यों के गिरावट आती है तो साहित्य ही जनमानस का मार्गदर्शन करता है।
प्रत्येक देश का साहित्य अपने देश की भौगोलिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक परिस्थितियों से जुड़ाव रखता है। साहित्यकार अपने देश के अतीत से प्राप्त विरासत पर गर्व करता है, एवं वर्तमान का मूल्यांकन करता है और भविष्य के लिए सपना देखता है और इस प्रकार कहा जा सकता है कि वह राष्ट्रीय आकांक्षाओं से परिचालित होता है।
भारत जैसे देश के लिए राष्ट्रीयता के बारे में कुछ संकट है। भारत में साहित्यकारों के लिए आज भी मौलिक समस्या भूख, बेरोजगारी और असमानता आदि है। भारत में राष्ट्रवाद का उदय के समय राष्ट्रवाद के उदय के बजाय बाधाएं उत्पन्न हुई। किंतु आधुनिक साहित्य ने राष्ट्रवाद के विकास में मुख्य भूमिका निभाई। साहित्य का ही योगदान है कि भारत में अनेक धर्म और अनेक भाषाएं बोलने वाले एक साथ राष्ट्रीयता के लिए समान भावन रखते है।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भी निबंधों में प्राचीन भारतीय संस्कृति के उदात्त स्वरूप को प्रत्यक्ष कर नई युवा पीढ़ी को उसके महत्व से परिचित कराया है। राष्ट्रीयता का एक अन्य पक्ष वहां दिखाई देता है, जहां रचनाकार अपनी रचनाओं में वर्तमान के प्रति अपनी चिंता व्यक्त करता है, और देश की राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, विसंगतियों पर प्रहार करता है। इन परिस्थितियों में रचनाकार सुधार की कामना करता है और जनता का आहृवान करता है तथा स्वयं भी सक्रियतापूर्वक इसमें भाग लेता है। देश की आजादी के संघर्ष काल से लेकर स्वंतत्रता प्राप्ति तक तथा उसके बाद की रचनाएं इसका प्रबल प्रमाण है।
राष्ट्रीयता की भावना विकसित करने में आधुनिक साहित्य का बहुत बड़ा योगदान है। राष्ट्रवाद से सामुदायिक भावना का विकास होता है और लोकतांत्रिक भावना से राष्ट्रवाद समृद्ध होता है। देश की रक्षा हित एक समाज के जातीय स्वरूप के विकास की आकांक्षा राष्ट्रीय चेतना का अविभाज्य अंग है।
अपनी संस्कृति के प्रति गौरव बोध वस्तुतः राष्ट्रीय अस्मिता का एक हिस्सा है और राष्ट्रीय अस्मिता राष्ट्रबोध का अभिन्न अंग है। प्रगति विकास संस्कृति, इतिहास, भूगोल आदि की जड़ भाषा होती है और भाषा को साहित्य समृद्ध करता है। साहित्य प्रत्येक वर्तमान को कलात्मक एवं यथार्थ रूप में समाज के सम्मुख रखता है।
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