हिंदी साहित्य इतिहास का पहला चरण आदिकाल है जिसे वीरगाथा काल भी कहा जाता है। यह काल 10 वीं से 14 वीं शताब्दी ई. तक माना जाता है। यह काल वीर रसात्मक ग्रंथों की प्रधानता है। वीरों को गाथाऐं आदिकाल हिंदी साहित्य का केंद्र बिंदु है। साहित्य समाज के विभिन्न भाव, भावना आदि का प्रतीक है। किसी भी समाज के साहित्य से तत्कालीन समाज की भावना व सभ्यता को समझा जा सकता है। अर्थात् साहित्य में पायी जाने वाली प्रवृतियां तत्कालीन समाज का दर्पण है। किसी भी साहित्य को समझने के लिए उस साहित्यिक रचना का काल खंड की विशेष परिस्थितियों का समझना आवश्यक है। आदिकालीन साहित्य की विशेषताएं उस काल की परिस्थितियां से निर्मित हुई है।
आदिकालीन परिस्थितियाँ:
राजनीतिक परिस्थितियाँ: राजनीतिक दृष्टि से भारत का उत्तरी भाग युद्ध व अशांति के दौर से गुज़र रहा था। यह वही समय था जब सम्राट हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद भारत कई खंडों में विभाजित हो गया था। चौहान और चंदेल वंश के राजाओं ने अपने अपने स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिए थे, राजपूत राज्य निरंतर युद्ध के कारण अत्यंत शक्तिहीन हो चुके थे। ये राज्य विदेशी राजाओं के आक्रमण का डटकर मुकाबला करने की स्थिति में नहीं थे। उत्तर पश्चिमी सीमा से 10 वीं शताब्दी में महमूद गजनवी और 12 वीं शताब्दी में मोहम्मद गौरी ने भारत पर आक्रमण किया।
धार्मिक परिस्थितियां: इस काल तक वैदिक और पौराणिक धर्म के साथ साथ जैन व बौद्ध धर्म भी अपनी वास्तविक शिक्षा व आदर्शों को खो चुका था। इन धर्मों में भी व्यापक परिवर्तन हो गया था। बौद्ध धर्म ने भी मूर्ति पूजा, भक्ति तंत्र मंत्र, जादू टोना आदि अपने धर्म में धारण कर ली। धर्म की वास्तविकता इस काल तक समाप्त हो चुकी थी। निम्न वर्ग, अशिक्षित समाज पर सिद्ध संप्रदाय का प्रभाव बढ़ने लगा था।
सांस्कृतिक परिस्थिति: सम्राट हर्षवर्धन के समय में भारत अपनी सांस्कृतिक दृष्टि से उच्चतम स्तर पर था। हिंदू धर्म व संस्कृति राष्ट्रीय स्तर पर एक थी। किंतु काल खंड में उत्तर पश्चिमी दिशा से मुस्लिम शासकों के आगमन से भारत के धीरे धीरे मुस्लिम संस्कृति का प्रभाव भारतीय संस्कृति पर पड़ने लगा। इसके परिणामस्वरूप भारत में मुस्लिम धर्म फैलाव करने लगा। भारतीय संस्कृति के मूल केंद्रों जैसे मंदिरों, मठों और विद्यालयों को नष्ट किया गया।
सामाजिक परिस्थिति: इस काल में धार्मिक और राजनीतिक दशा अपने निम्नतर स्तर पर थी, जिस कारण समाज की सामाजिक स्थिति की उच्च स्तर की उम्मीद नहीं की जा सकती है। जनता शासन और धर्म दोनों से ही निराश हो रही थी। समाज के कई विसंगतियों को जन्म होना प्रारम्भ होने लगा। जीवन मूल्यों व आदर्शों का गिरना स्वाभाविक था। सती प्रथा जैसी कुरीतियों भी इसी समाज का हिस्सा थी। महिलाओं की स्थिति अब पूजनीय नहीं रही थी।
आदिकालीन साहित्य की भाव और भाषा अन्य साहित्य से भिन्न दृष्टिकोण है। जो इन्हीं परिस्थितियों के कारण दिखाई देता है। यह भारतीय इतिहास का वहीं समय है जहां एक ओर तो राजनीतिक अस्थिरता है और दूसरी और धर्म भी अपने स्वभाविक पथ व स्वाभाविक उद्देश्य से भटक गए थे। आदिकाल में अनेक वीरगाथात्मक साहित्य शामिल है।
आदिकाल साहित्य की विशेषताएं
राष्ट्रीय भावना:
तत्कालीन समाज में राष्ट्र की भावना अत्यंत संकुचित व सीमित थी। उस समाज कुछ गाँव जैसे भू- भाग को ही राज्य माना जाता था। समाज में संपूर्ण भारत के लिए कोई राष्ट्रीय की भावना नहीं है, बल्कि अपने राज्य विशेष को ही राष्ट्र मान लिया जाता था।
ऐतिहासिकता का अभाव:
आदिकालीन साहित्य से इतिहास का अंश का अभाव है। इस काल की रचनाओं से समाज आदि का कम पता चलता है, और राजाओं व शासकों का गुणगान अधिक प्राप्त होता है। कवि अपने आश्रयदाता की गुणगान के लिए इतिहास के तथ्यों की अवहेलना करते है।
जन जीवन के चित्रण का अभाव:
इस काल के साहित्य में समाज के जन जीवन के साहित्य या इतिहास का अभाव है। कवि अपने शासक के गुणगान के तल्लीन थे, उनका आज जन जीवन से सीधा को संबंध नहीं था। अतः अपने साहित्य के जन जीवन का उल्लेख नहीं मिलता।
डिंगल भाषा:
इस काल में लिखी गई, अधिकांश रचनाएं डिंगल भाषा में लिखी है। डिंगल राजस्थान की एक साहित्यिक भाषा है। तत्कालीन सभी रचनाएं राजस्थान के क्षेत्र में रची गई, जिन कारण डिंगल भाषा में लिखा जाना स्वाभाविक था।
रासो शब्द का प्रयोग:
इस काल की साहित्यिक रचनाओं में रासो शब्द का प्रयोग किया गया हैं। ये ग्रंथ रासो नाम से प्रसिद्ध है। फ्रांसीसी इतिहासकार रासो शब्द की उत्पत्ति ' राज- सुया' शब्द से मानते है।
युद्ध वर्णन में सजीवता:
रासों काव्य ग्रंथों में युद्ध का वर्णन लेखकों ने ऐसा किया है मानो इन्होंने युद्धों को स्वयं देखा है महसूस किया है। इन युद्धों में कवियों द्वारा सैन्य बल के साथ साथ योद्धाओं के उमंगों मनोदशा एवं क्रियाकलापों का भी विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है।
प्रमाणिकता का अभाव:
इस काल के अधिकांश रासो काव्य तथा कवियों की प्रमाणिकता का अभाव है। इस काल में रचित पृथ्वीराज रासो भी प्रमाणिक के अभाव से वंचित नहीं रही है। इसी प्रकार से खुमान रासो और परमाल रासो भी प्रमाणिक के अभाव से ग्रसित है।
वीर व श्रृंगार रस:
आदिकाल में वीर एवं श्रृंगार रस के अलावा सभी रस का प्रयोग हुआ है। युद्ध का वर्णन होने से वीर रस की योजना अनायास हो गई है। पृथ्वीराज रासो में अनेक मर्मस्पर्शी स्थल है जहां रस का पूर्ण परिपाक हुआ है। कुछ शौर्य प्रदर्शन के लिए तथा सुंदर राजकुमारियों से विवाह करने के निमित्त लड़े जाते है।
प्राकृतिक रचना:
प्राकृति का वर्णन किया गया है। नदियों, पर्वतों, नगर आदि का वर्णन इस रचना का भाग हैं।
अलंकारों का प्रयोग:
आदिकाल में अलंकारों का समावेशन हुआ है। चारण कवियों ने अपने काव्य में अलंकारों का सहारा लिया है। उपमा, रूपक और उत्प्रेक्षा का जैसे हृदयग्राही चित्रण आदिकाल में मिलता है वैसे अन्यत्र दुर्लभ है। यद्यपि रासो की विशाल ग्रन्थ में प्रायः सभी अलंकार खोजने से प्राप्त हो जाते है तथापि अनुप्रास, यमक, रूपक, उत्प्रेक्षा और अतिशयोक्ति अलंकारों की प्रधानता रही है।
आदिकाल काव्य वीरगाथात्मक कथाओं के कारण महत्वपूर्ण है। इस काल में साहित्य की कई परंपराओं का उदय एक साथ दिखाई देता है। हिंदी साहित्य के विकास के लिए संपूर्ण सामग्री उपलब्द होती है।
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