साहित्य अर्थात् स+हित, समाज का व्यापक हित ही साहित्य है। साहित्य एक कला है, जिसमें भावनाओं/विचारों को प्रकट करना, जिन्हें कहानियां,उपन्यास, निबंध आदि के माध्यम से अपनी विचारधारा को रचनात्मक तरीके से समाज के हित में प्रकट करना है। साहित्य जीवन के लिए एक अभिन्न अंग की तरह है। साहित्य और समाज के मध्य संबंध है जो आत्मा और शरीर के मध्य है।
साहित्य समाज का दर्पण होता है, समाज का मार्गदर्शक है और समाज का लेखा जोखा है अर्थात् किसी भी समाज / राष्ट्र की जानकारी उसके साहित्य से प्राप्त की जा सकती है। मुंशी प्रेमचंद के अनुसार “साहित्य जीवन की आलोचना है।”
साहित्यकार जागरूक नागरिक होता है, वह समाज से पृथक नहीं होता, बल्कि समाज में व्याप्त आशा, निराशा,सुख,दुख आदि से प्रभावित होता है, और इन परिस्थितियों के अनुसार ही अपनी रचना को प्रकट करता है। जैसे यदि देश उपनिवेश काल या युद्ध जैसी समस्या से गुजर रहा हो तो साहित्यकार अपनी रचना के माध्यम से समाज में जोश का प्रवाह करता है।
साहित्य का एक लक्ष्य यह होता है कि साहित्य की कोई रचना पढ़ने के पश्चात पाठक ठीक वह व्यक्ति न रहे जो वह साहित्यिक रचना पढ़ने से पहले था अर्थात् साहित्य रचना पढ़ने के पश्चात सकारात्मक परिवर्तन होना स्वाभाविक है।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी ने कहा है कि “प्रत्येक देश का साहित्य वहां की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिंब होता है।”
पंडित बालकृष्ण भट्ट ने साहित्य की नवीन परिभाषा करते हुए कहा कि “साहित्य जनसमूह के हृदय का विकास है। यह विवेचना निबन्ध का शीर्षक मात्र नहीं, बल्कि साहित्य के प्रति उभरे तत्कालीन नवीन दृष्टिकोण पर आधारित उसकी एक परिभाषा भी है।”